1999 में आईआईएम अहमदाबाद के कुछ प्रोफेसरों ने एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की स्थापना की थी. इस मकसद से कि देश की राजनीति और चुनाव प्रणाली में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़े. इस सिलसिले में यह संस्था कोर्ट तक गई है.
1999 में संस्था के हस्तक्षेप के बाद ही सर्वोच्च न्यायालय ने सभी चुनावी उम्मीदवारों के लिए चुनाव से पहले अपने आपराधिक, वित्तीय और शैक्षिक पृष्ठभूमि का हलफनामा पेश करना अनिवार्य कर दिया था.
संस्था ने अन्य मुद्दों के साथ राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे का भी खुलासा किया और इस संदर्भ में राजनीतिक दलों की जवाबदेही और पार्टी के अंदरूनी संचालन और लोकतांत्रिक माहौल पर प्रश्न उठाए.
चुनाव आयोग ने हाल ही में केंद्र सरकार से मांग की है कि राजनीतिक दलों को मिलने वाला बेनामी चंदा 2000 रुपए से ज्यादा न हो.
एडीआर के संस्थापक सदस्य जगदीप छोकर से कैच की बातचीत के अंश
चुनाव आयोग ने सरकार से मांग की है कि पार्टियों को 2000 से ज्यादा मिलने वाले बेनामी चंदे पर रोक लगाई जाए. आप क्या सोचते हैं?
यह अच्छा सुझाव है, पर और बेहतर होता यदि 2000 रुपए की जगह जीरो की सिफारिश की जाती. इससे कुछ हद तक काले धन का इस्तेमाल कम करने में मदद मिलती. मसलन, एक राजनीतिक पार्टी की सालाना आय 400 करोड़ है और उसका कहना है कि वह 20,000 रुपए से ज्यादा चंदा नहीं लेती. इसका मतलब सभी चंदे, जो 400 करोड़ में जुड़ते हैं, उनमें से हरेक 20,000 रुपए से कम है.
सैद्धांतिक रूप से उन्हें प्रत्येक चंदे के लिए 19,999 की रसीद देनी होगी, जो कुल 400 करोड़ हो जाता है. यदि यह सुझाव मंजूर कर लिया जाता है. तो उन्हें हर चंदे के लिए 19,999 रुपए की रसीद देनी है. इतनी सारी रसीदें देना उस राजनीतिक पार्टी के लिए और भी जटिल हो जाएगा. मेरे खयाल से, असल में कोई भी रसीद नहीं दी जाती.
राजनीतिक पार्टियों की 75 से 80 फीसदी आय के स्रोत ज्ञात नहीं होते. 20,000 रुपए से कम के चंदे से आय का 25 फीसदी हो जाता है. पैसा इकट्ठा किया जाता है और 20,000 से कम का चंदा बताया जाता है. राजनीतिक दल इसका खुलासा नहीं करते कि उन्होंने 20,000 रुपए से कम कितनी बार चंदा लिया.
राजनीतिक पार्टियों की 75 से 80 फीसदी आय के स्रोत ज्ञात नहीं होते. 20,000 रुपए से कम के चंदे से आय का 25 फीसदी हो जाता है. पैसा इकट्ठा किया जाता है और 20,000 से कम का चंदा बताया जाता है. राजनीतिक दल इसका खुलासा नहीं करते कि उन्होंने 20,000 रुपए से कम कितनी बार चंदा लिया.
यदि हम 20,000 से ऊपर के चंदे की सूची को जोड़ें और उसकी तुलना दलों की आयकर रिटर्न में बताई गई सालाना आय से करें, तब औसतन, 20,000 रुपए से ज्यादा का चंदा उनकी कुल आय का महज 20 से 25 फीसदी होता है. इसलिए 75से 80 फीसदी राजनीतिक दल की आय अनजान स्रोतों से होती है, जो कुछ भी हो सकती है.
कभी-कभी वे कहते हैं कि यह आय कूपन की बिक्री या अन्य साधनों से हुई है, पर किसी भी दल ने कभी विस्तार से नहीं बताया. मुझे शक है, उन्हें कभी पूछा भी नहीं गया.
पिछले दिनों के घटनाक्रम पर राजस्व सचिव ने कहा था कि राजनीतिक दल पुराने करेंसी नोट कितने ही जमा करवा सकते हैं और उनसे कोई सवाल नहीं किया जाएगा? आपका क्या कहना है?
इस पर वित्तमंत्री अरुण जेटली ने स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया था, पर उस स्पष्टीकरण से कोई नई बात सामने नहीं आती. स्पष्टीकरण के मुताबिक यह मौजूदा कानून के अनुकूल है. पर वर्तमान कानून में केवल दो प्रावधान हैं- सालाना आयकर रिटर्न भरनी है और 20,000 से ज्यादा के चंदे का विवरण चुनाव आयोग को देना है. मौजूदा कानून में नई-पुरानी करेंसी का कोई प्रावधान नहीं है. यह यकीनन ब्लैक मनी को व्हाइट में बदलने का एक और रास्ता खोलता है.
पार्टियों को कर में छूट देना कई कारणों से तर्कसंगत नहीं है. मसलन वह शख्स, जिसके पास पुरानी करेंसी में 20 करोड़ रुपए हैं और जो अपने खाते में ढाई लाख से ज्यादा जमा नहीं करवा सकता/सकती, वह राजनीतिक दलों को कैश दे सकता है. फिर वह दल अपने खाते में जमा करवा सकता है.
पहली बात तो यह कि इससे दल उसका आभारी हो जाता है और फिर वह शख्स भविष्य में इसके बदले में कभी लाभ उठा सकता है. दूसरा, वह शख्स दलों को सेवाएं देने के एवज में 10 करोड़ का बिल बना सकता है. फिर वह दल उसे 10 करोड़ का भुगतान चेक से कर सकता है और वह 10 करोड़ उस शख्स के लिए व्हाइट मनी बन जाता है. बाकी का 10 करोड़ दलों के पास व्हाइट मनी के रूप में रहता है. दोनों खुश. नोटबंदी से काले धन के जनरेट होने पर अंकुश नहीं लगेगा.
चुनाव आयोग की इस सिफारिश पर आप क्या कहेंगे कि चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को ही कर में छूट दी जानी चाहिए?
राजनीतिक दलों को कर में छूट देने के पीछे केवल एक ही औचित्य है कि वे सार्वजनिक कार्य करती हैं. पर सार्वजनिक कार्य तो और भी कई संस्थाएं करती हैं. इसलिए दलों को कर में छूट देना तर्कसंगत नहीं है, और वे जो चुनाव नहीं लड़ते, उनके लिए तो सर्वथा अनुचित और अवांछनीय है.
भारत इस मामले में अजीब है, जहां चुनाव आयोग दलों को रजिस्टर कर सकता है, पर उनका रजिस्ट्रेशन निरस्त नहीं कर सकता, और इसके लिए सुप्रीम कोर्ट का फैसला तक है. इसलिए ये दल निरंतर बने रहते हैं और कर में छूट का आनंद लेते रहते हैं.
अंतिम गणना होने तक देश में 2000 से ज्यादा दल थे और वे सभी कर में छूट का लुत्फ उठा रहे हैं. उनमें से महज 200 या 300 चुनाव लड़ते हैं. मैं इस सुझाव का स्वागत करता हूं, पर मुझे और भी ज्यादा खुशी तब होगी जब वे इसे लागू करेंगे.
अंतिम गणना होने तक देश में 2000 से ज्यादा दल थे और वे सभी कर में छूट का लुत्फ उठा रहे हैं. उनमें से महज 200 या 300 चुनाव लड़ते हैं. मैं इस सुझाव का स्वागत करता हूं, पर मुझे और भी ज्यादा खुशी तब होगी जब वे इसे लागू करेंगे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कैशलेस अर्थव्यवस्था पर बराबर जोर दे रहे हैं. जहां तक चंदे का सवाल है, क्या राजनीतिक दल डिजिटल होंगे?
मैं पूरी तरह सहमत हूं. राजनीतिक पार्टियों को यह नहीं कहना चाहिए कि पहले देश डिजिटल हो, फिर हम होंगे. वे पहले डिजिटल क्यों नहीं होते?
चुनाव के लिए राज्य से चंदे पर आपकी क्या राय है?
चुनाव के लिए राज्य से चंदा, कहना ही गलत है. ‘राज्य’ के पास अपना खुद का पैसा नहीं होता. जो है, वह सब लोगों से कर के रूप में इकट्टा किया होता है. इसलिए उसे चुनाव के लिए जनता से चंदा कहना चाहिए, ना कि राज्य से चंदा.
इस विचार का फलसफा बड़ा खूबसूरत है. नजरिया यह है कि सार्वजनिक कार्यालयों के लिए उनका चुनाव सार्वजनिक सेवाओं के लिए होता है. असल में वे कई कारणों से चुनाव लड़ते हैं और यदि केवल जन सेवा के लिए चुनाव लड़ रहे हैं, तो उन्हें जनता का पैसा देना चाहिए.
जनता का पैसा चुनाव में देने से पहले यह जानना जरूरी है कि इसके लिए कितना बजट होना चाहिए. असल में उम्मीदवार और राजनीतिक दल चुनाव पर कितना खर्च करते हैं. चुनाव आयोग दलों का रजिस्ट्रेशन निरस्त नहीं कर सकता, इसका मतलब यह है कि जो दल चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, उन्हें भी कर में छूट है.
2009 में हमने 6,753 उम्मीदवारों के चुनाव में आए खर्च के हलफनामे का विश्लेषण किया था. उनमें केवल चार जनों ने कहा कि उनका तय सीमा से ज्यादा खर्चा हुआ है. 30 ने कहा, उनका तय सीमा का 90 से 95 फीसदी खर्च हुआ. बाकी के 99.99 प्रतिशत ने कहा कि उनका तय सीमा का महज 45 से 55 प्रतिशत खर्च हुआ. इसका मतलब यह हुआ कि ज्यादातर उम्मीदवारों ने शपथपत्र में कहा कि उन्होंने तय सीमा का आधा खर्च किया.
विडंबना है कि हमेशा इस बात को लेकर हंगामा होता रहता है कि सीमा बहुत कम है. अब यदि सीमा कम है, तो लोग सीमा का आधा ही कैसे खर्च कर रहे हैं? एक पूर्व चुनाव आयुक्त ने कहा कि चूंकि ज्यादातर उम्मीदवार सीमा का आधा खर्च कर रहे हैं, और ऐसा अपने शपथपत्र में कह रहे हैं, तो हमें सीमा घटा देनी चाहिए. पर हर चुनाव में सीमा बढ़ा दी जाती है.
सभी जानते हैं कि काले धन का उपयोग चुनावों में चंदे के लिए होता है. इस पर कैसे नियंत्रण हो सकता है?
इसके तरीके तभी ढूंढ़े जा सकते हैं, जब ऐसा करने की इच्छा हो. राजनीतिक पार्टियों का संसद पर नियंत्रण होता है, और वे किसी भी कानून से शासित होना नहीं चाहतीं. आरटीआई को संसद ने एकमत से पारित किया था, जिसमें जन अधिकारी बनने की चार शर्तें थीं. सर्वोच्च संवैधानिक संस्था, केंद्रीय सूचना आयोग की पूर्ण न्यायपीठ ने 2013 में कहा था कि आरटीआई के अधीन छह राष्ट्रीय दल सरकारी अधिकारी हैं. हालांकि ये दल इस फैसले का सम्मान नहीं करते. सीआईसी में इसकी शिकायत दर्ज की गई और दो साल तक टालने के बाद सीआईसी ने कहा कि वह अपने ही आदेशों को लागू नहीं करवा सकी.
इसके तरीके तभी ढूंढ़े जा सकते हैं, जब ऐसा करने की इच्छा हो. राजनीतिक पार्टियों का संसद पर नियंत्रण होता है, और वे किसी भी कानून से शासित होना नहीं चाहतीं. आरटीआई को संसद ने एकमत से पारित किया था, जिसमें जन अधिकारी बनने की चार शर्तें थीं. सर्वोच्च संवैधानिक संस्था, केंद्रीय सूचना आयोग की पूर्ण न्यायपीठ ने 2013 में कहा था कि आरटीआई के अधीन छह राष्ट्रीय दल सरकारी अधिकारी हैं. हालांकि ये दल इस फैसले का सम्मान नहीं करते. सीआईसी में इसकी शिकायत दर्ज की गई और दो साल तक टालने के बाद सीआईसी ने कहा कि वह अपने ही आदेशों को लागू नहीं करवा सकी.
बाद में हम सर्वोच्च न्यायालय गए, जिसने 6 दलों और भारत सरकार को नोटिस दिया. किसी भी राजनीतिक दल की प्रतिक्रिया आने से पहले, सरकार ने कहा कि दलों को आरटीआई के अधीन नहीं होना चाहिए. चुनावों में काले धन का उपयोग तभी रुकेगा जब राजनीतिक दल और राजनेता इस देश का कानून मानें, पर ऐसा नहीं है.
सरकार और चुनाव आयोग के बीच विधानसभा और लोकसभा के चुनाव साथ कराने पर चर्चा होती रही है. क्या इससे खर्चे में कमी आएगी, क्या यह संभव है?
इससे खर्चे में कमी आएगी, पर सवाल यह है कि लोकतंत्र सस्ता होना चाहिए या प्रभावी? क्या लोकतंत्र पर खर्च की सीमा लागू करना न्यायसंगत है? यदि हम खर्च नहीं करना चाहते, तो चुनाव क्यों करवाते हैं? चुनावों पर खर्चा कम करने को कहना अपमानजनक है, जो लोकतंत्र के संचालन का सबसे बुनियादी साधन है.
संविधान के अंतर्गत राज्य स्वतंत्र इकाइयां हैं और उनका अपना चुनाव-चक्र है. उन्हें चुनाव के संघीय चक्र के लिए क्यों मजबूर किया जाए? यह संविधान को बर्बाद करने वाली कार्रवाई होगी.
इसके अलावा 1989 में विभिन्न राज्यों में समवर्ती चुनावों के 31 उदाहरण रहे हैं और दिलचस्प है कि 24 चुनावों में प्रमुख राजनीतिक पार्टियों को विधानसभा और लोकसभा चुनावों में बराबर वोट मिले. ‘एक देश, एक कर’, ‘एक देश, एक चुनाव’ और ‘एक देश, एक पार्टी’ का तर्क संविधान को नष्ट करने जैसा है.
विधानसभा और लोकसभा के चुनाव साथ-साथ करवाने के लिए हर हाल में संविधान के 5 से 7 अनुच्छेदों में संशोधन करने की आवश्यकता पड़ेगी, क्योंकि आज के राजनीतिक माहौल में यह करना लगभग असंभव है.