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New Delhi

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक मान्यता प्राप्त 45 राजनीतिक दलों में से 29 ने चुनाव आयोग के समक्ष चंदे से संबंधित अपनी रिपोर्ट नहीं जमा की है.

रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि बीजेपी एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसने वित्तीय वर्ष 2013-14 में 20 हजार रुपए से ज्यादा चंदा देने वालों के नामों का भी खुलासा नहीं किया है. मजे की बात तो यह है कि चुनाव आयोग को दाखिल रिपोर्ट में बीएसपी ने बताया कि उसे 20 हजार रुपए की रकम से ज्यादा एक भी दान नहीं मिला है. एडीआर ने पिछले साल अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि देश के मुख्य राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे के 75 फीसद हिस्से का स्रोत अज्ञात है. साथ ही चंदे के ज्ञात स्रोत का 87 फीसद हिस्सा कॉरपोरेट घरानों से मिला है. 

उपर्युक्त उदाहरणों से यह तो स्पष्ट है कि राजनीतिक दलों के आर्थिक प्रबंधन का मुद्दा एक बेहद अहम मुद्दा है. दुनिया भर के परिपक्व और उभरते प्रजातांत्रिक देश राजनीति में धन के दुरुपयोग की समस्या से जूझ रहे हैं. एक राजनीतिक दल के संचालन के लिए धन बेहद जरूरी है, लेकिन चंदा प्राप्त करने का अनियंत्रित, अज्ञात और अपारदर्शी तरीका प्रजातंत्र के लिए बेहद खतरनाक है. जहां एक ओर धन की कमी से जूझ रही साधनविहीन पार्टी लोगों तक अपनी पहुंच और अपनी बात पहुंचाने के लिए कई मुश्किलों का सामना कर रही होती है, वहीं दूसरी ओर अवैध तरीके से चंदा हासिल कर संपन्न दल फिजूलखर्ची और दिखावा कर लोगों को लुभाते हैं. फिर सत्ता में आने के बाद वे आम लोगों की दिक्कतों पर ध्यान देने के बजाए पार्टी के पोषकों के हितों का अधिक ख्याल रखते हैं. 

दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देश भारत की अपनी समस्याएं हैं. यह बात समझने के लिए आपको कोई राजनीतिक पंडित होना आवश्यक नहीं है कि भारत की राजनीति भ्रष्टाचार, संरक्षणवादिता और वंशवाद से ग्रस्त है. अपने देश में भ्रष्टाचार की गाथा पर तो ग्रंथ लिखे जा सकते हैं. जनता का भ्रष्टाचार और प्रशासनिक गैरजिम्मेदारी के दर्द से पुराना रिश्ता है. रिश्वतखोरी ने देश के सामाजिक और आर्थिक विकास को बेतहाशा क्षति पहुंचाई है. सत्ता में कोई भी दल हो, घोटाले इस देश की नियति बन गए हैं. फलस्वरूप, सर्वदलीय भ्रष्टाचार ने देश को 'रिवाल्विंग डोर' वाला चुनावी प्रजातंत्र बना दिया है. साथ ही पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के अभाव ने प्रजातांत्रिक संस्थाओं के विकास की प्रक्रिया को भी धीमा कर दिया है. देश की राजनीति में संरक्षणवादिता के कई उदाहरण देखने को मिलते हैं, जैसे कि पैसे और उपहारों के जरिए वोटों की खरीद-फरोख्त, नौकरी, कांट्रेक्ट, लाइसेंस और परमिट तथा शैक्षणिक संस्थाओं में नामांकन करा कर मतदाताओं को खुश करना, आदि. 

राजनीति में संरक्षणवादिता के प्रचलन से महिला उम्मीदवारों का रास्ता दुर्गम हो जाता है, क्योंकि उनकी दलालों और आपराधिक प्रवृति के लोगों तक पहुंच व सांठगांठ कम होती है. इससे राजनीति में लैंगिक असमानता भी बढ़ रही है. वंशवाद तो भारतीय राजनीति में इस कदर जड़ तक फैला है कि हममें से अधिकतर लोगों ने इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया है. राष्ट्रीय स्तर पर तो नेहरु -गांधी वंश इसका ज्वलंत उदाहरण है ही, परंतु राज्य भी इस बीमारी से अछूते नहीं हैं. इसके चलते देश के कई राज्य तो पारिवारिक 'रजवाड़ों' में तब्दील हो चुके हैं. जम्मू-कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक वंशवाद की राजनीति का खूब बोलबाला है. भ्रष्टाचार, संरक्षणवादिता और वंशवाद की राजनीति की वजह से भारतीय राजनीति संभ्रांत और प्रभावशाली परिवारों तक ही सीमित होकर रह गई है. काले धन की बदौलत पार्टी और नेता सत्ता में हमेशा बने रहने के लिए किसी भी तरह की चुनावी धोखाधड़ी और हिंसा करने से नहीं हिचकते हैं. यहां तक कि जाली चुनाव तक के मामले सामने आए हैं, जो एक प्रकार से लोकतंत्र को पंगु बना रहे हैं. इससे स्पष्ट है कि सिर्फ  शांतिपूर्ण व निष्पक्ष चुनाव करवाना ही लोकतंत्र के लिए काफी नहीं है. लोकतंत्र की सफलता इस बात पर भी निर्भर करती है कि राजनीति में धन के प्रबंधन से हम किस तरह निपटते हैं!

जरूरत है कि राजनीतिक दलों को चंदा ज्ञात स्रोत से बिना किसी शर्त के मिले. बीते कुछ दशकों से चुनाव में धन का प्रभाव बढ़ गया है, जिसने राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को बेहद खर्चीला बना दिया है. इससे आम आदमी की राजनीतिक भागीदारी बिल्कुल घट गई है. चुनाव प्रचार के खर्च में भारी उछाल ने आम जनता के मन में यह धारणा बना दी है कि चुनाव सिर्फ  अमीर और दबंग लोग ही लड़ सकते हैं. 

इस समस्या का समाधान धन के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार से निपट कर ही मिल सकता है. इसके लिए हमें राजनीतिक चंदे से संबंधित नियमों में सुधार लाना होगा व इन्हें प्रभावी तरीके से लागू करना होगा. यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को मिलने वाली आर्थिक मदद के तौर-तरीकों में पारदर्शिता लाकर ही लोकतंत्र को मजबूत और सफल बनाया जा सकता है. वर्तमान में इस खामी को तुरंत दूर करना होगा जिसका इस्तेमाल कर राजनीतिक दल 20 हजार रुपए से कम चंदा देने वालों का नाम उजागर नहीं करते हैं. साथ ही, धन के लेन-देन से जुड़े मसले पर राजनीतिक दलों को भी सकारात्मक रुख अपना कर प्रयास करने होंगे. उदाहरण के तौर पर बीजेपी और कांग्रेस ने इस संबंध में कई जटिलताओं का जिक्र करते हुए अक्सर कहा है कि हर एक चंदा देने वाले का ब्यौरा रखना संभव नहीं है, जबकि इसके ठीक उलट आम आदमी पार्टी ने हर एक चंदा देने वाले का रिकार्ड तुरंत अपने वेबसाइट डालकर दिखा दिया कि मंशा हो तो कुछ भी असंभव नहीं है. 

दूसरा उपाय यह हो सकता है कि राजनीतिक दलों के कामकाज का खर्चा और प्रत्याशियों का चुनावी व्यय सरकारी खजाने से वहन किया जाए. पिछले कुछ वर्षो में इस हेतु कई सरकारी आयोग गठित किए गए, जिन्होंने 'स्टेट फंडिंग' पर अपनी सिफारिशें सरकार के सामने रखी हैं. उनमें से प्रमुख हैं- इंद्रजीत गुप्त कमेटी (1998), भारतीय कानून आयोग की रिपोर्ट (1999),  राष्ट्रीय संविधान समीक्षा आयोग 2000, दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग 2007 (प्रशासनिक नैतिकता) की रिपोर्ट, आदि. राज्य द्वारा फंडिंग किए जाने पर पर भ्रष्टाचार और काले धन के प्रभाव में कमी आएगी. इससे जहां चुनाव पर होने वाले खचरे में कमी आएगी, वहीं सभी दलों को चुनाव में समान रूप से अपनी क्षमता प्रदर्शित करने का मौका मिलेगा. स्टेट फंडिंग के कुछ नकारात्मक प्रभाव भी हो सकते हैं. मसलन, दल जनता के प्रति लापरवाह और उदासीन हो सकते हैं तथा उनमें मतदाताओं के बीच निचले स्तर पर जाकर काम करने का जज्बा नहीं रह जाएगा. 

अमीर दानदाताओं, आपराधिक समूहों या अन्य निजी समूहों का प्रभाव घटाने के लिए सरकार छोटे चंदे (माइक्रो डोनेशन) देने वालों को प्रोत्साहित कर सकती है. ऐसी व्यवस्था की जा सकती है कि सरकार राजनीतिक दलों को उनके द्वारा जनता से उगाहे चंदे के बराबर या उसकी कुछ गुणा राशि दे. इससे राजनीतिक दल इस तरह के छोटे-छोटे फंड के लिए आम लोगों के पास जाएंगे और उनके प्रति जिम्मेवार भी बने रहेंगे.


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